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रोटी, रोजगार और राहत के साथ अब राष्ट्ररक्षा का भी उद्देश्य है – समय मांगना आर्थिक त्याग है

भारत आज फिर से एक संदेश और युद्ध की स्थिति से गुजर रहा है। पाकिस्तान के साथ बढ़ते तनाव और पूरे देश में सैन्य शत्रुता की स्थिति मजबूत है। राजनीतिक से लेकर आम नागरिक तक, हर कोई ‘राष्ट्र सर्वोपरि’ की भावना से ओतप्रोत नजर आ रहा है। लेकिन सवाल सिर्फ भावनाओं का नहीं, आर्थिक वास्तविकताओं का भी है।

हर युद्ध की एक आर्थिक कीमत होती है – चाहे वह प्रत्यक्ष युद्ध हो या सीमाओं पर तनाव के कारण रक्षा व्यवस्था को और मजबूत करने की आवश्यकता। इस समय केंद्र सरकार पर राष्ट्रीय सुरक्षा को मजबूत करने का दबाव है, लेकिन राज्यों को भी यह समझना होगा कि वे इस राष्ट्रीय जिम्मेदारी से अछूते नहीं हैं। जब पूरा देश एकजुटता की मांग कर रहा है, तो क्या राज्य सरकारों को भी अपने खर्चों और योजनाओं पर पुनर्विचार नहीं करना चाहिए?

अमित बागलीकर

लोकलुभावन योजनाओं से राष्ट्र निर्माण नहीं होता – मध्य प्रदेश में लाडली बहना योजना के तहत लाखों महिलाओं को सीधे आर्थिक सहायता दी जा रही है। यह योजना अच्छी ही सामाजिक दृष्टि से विशेष हो, लेकिन इसके लिए वित्तीय भार को मंजूरी नहीं दी जा सकती। राज्य सरकार को हर दो महीने में इस योजना के तहत करोड़ों लोगों का कर्ज उठाना पड़ रहा है। अब कल्पना की गई है कि यही करोड़ों रुपये अगर इस संकट की घड़ी में देश की सुरक्षा या शहीद परिवार की मदद में शामिल हों, तो वह राष्ट्र सेवा का बड़ा उदाहरण होगा। यह कहना ग़लत नहीं होगा कि यह समय केवल राजनीति से प्रेरित ‘रेवड़ी’ संस्कृति को जारी रखना, आर्थिक विवेक और राष्ट्रधर्म दोनों के विपरीत है।

किस महिला की भूमिका सिर्फ अतिथि बनकर रह जाये भारत की महिलाओं ने हर युग में त्याग और बलिदान की मिसाल पेश की हैं। रानी लक्ष्मीबाई से लेकर आज की सीमा पर महिला अधिकारी तक, भारतीय नारी ने देश की रक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। आज जब सरकारी उन्हें ‘लाडली बहना’ कहते हैं, केवल अतिथि की भूमिका में सीमित कर रहे हैं, तब क्या महिलाएं खुद आगे बढ़कर यह कह सकती हैं कि इस बार हमारी योजना की राशि हमारे देश के वीर साथियों को समर्पित हो यदि राज्य सरकार इस योजना के एक या दो किश्तों को स्वैच्छिक रूप से ‘सैनिक कल्याण कोष’ में स्थानांतरित करने का विकल्प देती है, तो लाखों महिलाएं स्वयं इस राष्ट्रीय कार्य में भागीदारी कर सकती हैं। इससे उनके सशक्तिकरण का एक नया अध्याय शुरू होगा – जो सिर्फ आर्थिक नहीं, बल्कि नैतिक और राष्ट्रीय होगा।

अन्य राज्यों को भी लेना चाहिए सबक – यह विचार केवल मध्य प्रदेश तक सीमित नहीं होना चाहिए। देश के कई राज्यों में ऐसी परिभाषाएँ चल रही हैं, जिनका उद्देश्य वास्तविक उद्देश्य सामाजिक कल्याण कम, और राजनीतिक लाभ अधिक है। ये एक ओर तो राज्यों के पैमाने पर भारी भरकम दल रख रहे हैं, वहीं दूसरी ओर अन्य देशों की एकता और दीर्घकालीन सुरक्षा के सिद्धांतों से मुंह मोड़ रही हैं। यदि हर राज्य अपने-अपने ‘लोकलुभावन खर्चों’ का 10-20% हिस्सा युद्ध का कालजयी मांग, गुलामी के अवशेष और सेना के नामांकन के लिए समर्पित करे, तो यह राष्ट्रीय योगदान का सबसे श्रेष्ठ उदाहरण होगा।

राज्य की आर्थिक स्थिति भी सुधरेगी – वर्तमान समय में मध्यप्रदेश सहित कई राज्य लगातार कर्ज में डूबते जा रहे हैं। लाड़ली बहना योजना, किसान ऋण माफी, बेरोजगारी भत्ते जैसी योजनाएं राजनीति के लिए भले लाभकारी हों, लेकिन अर्थव्यवस्था के लिए दीर्घकालीन रोग बनती जा रही हैं। इस काल की स्थिति में युद्ध में यदि राज्य सरकार थोड़ी सी नीति की डिग्री और इन परिभाषाओं को देश की संसद के अनुसार ढालेंगी, तो न केवल आर्थिक बोझ घटेगा, बल्कि वित्तीय अनुशासन की मिसाल भी शामिल होगी।

राष्ट्रीय योगदान की भावना का जागरण आवश्यकहमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हर युद्ध केवल गोलियों से नहीं, जज्बे और सहयोग से भी लड़ा जाता है। आज जब हमारे सैनिक सीमाओं पर डटे हैं, तब हर नागरिक का यह धर्म बनता है कि वह देश को आर्थिक, मानसिक और सामाजिक रूप से मजबूत बनाए। यह सिर्फ सरकारों की जिम्मेदारी नहीं, बल्कि पूरे समाज का सामूहिक उत्तरदायित्व है। यदि महिलाएं योजना राशि को देश के नाम कर सकती हैं, अगर राज्यों की सरकारें अपने खर्चों को सीमित करके ‘राष्ट्र रक्षा कोष’ में योगदान कर सकती हैं, अगर हर आम नागरिक एक दिन का वेतन ‘भारत रक्षा अभियान’ को दे सकता है — तो यह एक सच्चा ‘जन युद्ध’ होगा, जो सीमा पार नहीं बल्कि देश के भीतर ‘राष्ट्र के लिए समर्पण’ का उदाहरण बनेगा।

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