आत्मज्ञान की दीक्षा से ही आध्यात्मिक विकास होगा -शारदा जी

देवास। जिस क्रिया में आत्मा का बोध प्राप्त करने का ज्ञान और सर्वत्र एक ही सत्ता का अनुभव हो तथा सर्वत्र एक ही सत्य के विद्यमान होने का भाव-सद्भाव जागता हो तथा हृदय में जन्म-जन्मांतर से पड़ी हुई पाश्विक वृत्तियों अर्थात पशुओं के समान वासनाओं का नाश हो जाता हो, वह पवित्र प्रक्रिया ही दीक्षा कहलाती है। संसार में ऐसा समय कभी न था, न है, न रहेगा य जब इस पवित्र दीक्षा के द्वारा जीवन का उद्धार करने वाले सद्गुरु धरती पर मौजूद न हो। जब तक सृष्टि चक्र सुचारू रूप से चलता रहेगा तब तक इस संसार में इस पवित्र ज्ञान-दीक्षा से आत्मा परमात्मा का साक्षात्कार कराने वाले सद्गुरु भी मौजूद रहेंगे। आत्मज्ञान की दीक्षा से ही आध्यात्मिक जीवन में प्रारम्भिक प्रवेश होता है। जिसमें ज्ञानदाता गुरु का महत्व जन्मदाता माता-पिता से भी बढ़कर होता है। दीक्षा प्राप्त व्यक्ति ही ईश्वर साक्षात्कार का अधिकारी होता है, दूसरा नहीं। कोई चाहे जितनी भी किताबें पढ़ ले, चाहे आत्मा -परमात्मा,लोक-परलोक और अध्यात्म पर उच्चतर भाषा-शैली और सुंदर शब्दों में व्याख्यान दे, परन्तु बिना आध्यात्मिक दीक्षा प्राप्त किये, वह व्यक्ति ज्ञान के क्षेत्र में एक अबोध बालक के समान ही होता है। बिना दीक्षा के दुनिया में किसी भी व्यक्ति का आध्यात्मिक विकास नहीं हो सकता। उक्त अध्यात्म से संबंधित बातें ग्राम पारस पीपली में मानव उत्थान सेवा समिति के सक्रिय सदस्य राजाराम वास्केल, शोभाराम वास्केल की स्व. माता श्री भंवर बाई की स्मृति में आयोजित सत्संग समारोह में श्री सतपाल जी महाराज की शिष्या शारदाबाई जी ने कहीं। उन्होंने कहा दीक्षा,नामदान या उपदेश वह प्रक्रिया है जिसमें एक सच्चा जिज्ञासु, जिसका मन, इंद्रिय और अंतःकरण पवित्र और संयमित हो,ऐसी आत्मा-परमात्मा के ज्ञान के अभिलाषीऔर आत्म- कल्याण के जिज्ञासु भक्त को पूर्ण तत्वज्ञानी गुरु द्वारा उस गूढ़ ब्रह्म विद्या का क्रियात्मक बोध कराया जाता है। आसपास क्षेत्र से बड़ी संख्या उपस्थित अध्यात्म प्रेमियों को संबोधित करते हुए साध्वी जी ने कहा अध्यात्म जगत में दीक्षा एक गोपनीय और अत्यंत पवित्र प्रक्रिया है,जिसमें एक व्यक्ति को उसकी अपनी निजी चेतना से जोड़ दिया जाता है। यह आत्मा और परमात्मा की मिलन की एक सर्वोत्कृष्ट विधि है। वास्तविक और पूर्ण आध्यात्मिक जीवन की शुरुआत दीक्षा के बाद ही होती है। दीक्षा गुरु और शिष्य के बीच परम पवित्र और उत्कृष्ट संबंध स्थापित करती है। इस मौके पर उपस्थित सेविका सरिता बहन ने ज्ञान-भक्ति, वैराग्य से ओतप्रोत मधुर भजन प्रस्तुत करते हुए कहा शास्त्र कहते हैं कि विद्या वही है जो मुक्त कर दे। जीस विद्या के ज्ञान से ईश्वर साक्षात्कार हो जाए, वही विद्या श्रेष्ठ है। जो उस विद्या को जानता है वह सभी शास्त्रज्ञों में श्रेष्ठ है। उस शास्त्र-ज्ञान का क्या महत्व, जो सिर्फ मिथ्या अभिमान का कारण है, जो समस्त शास्त्रों का ध्येय विषय एक अखंड अविनाशी परमात्मा है उसका बोध प्राप्त कर लेने पर सभी शास्त्रों के रहस्य को समझ लिया गया होता है। क्योंकि उसको जानना ही मानव जीवन का उद्देश्य होता है। उस परमात्मा का बोध होने पर मानव के हृदय में स्वतरू ही नीति, मर्यादा, विनम्रता, संयम, एकाग्रता,दया, क्षमा, प्रेम, सद्भाव और सर्वत्र आत्मेक्य दर्शन जैसे सद्गुणों का विकास हो जाता है। वह अंदर और बाहर दोनों ओर से शांत रहता है।


