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दुर्भाग्य: भाजपा की स्थापना 1980 के बाद पहली बार दिल्ली करेंगी जिलाध्यक्ष का फैसला,रायशुमारी की फ़िर क्यों चढ़वाई गई  ‘ खुमार

भोपाल ।अगर बड़े नेताओं और दिल्ली दरबार को ही अध्यक्ष तय करना थे तो रायशुमारी क्यों की गई
रायशुमारी के नाम पर विधायकों व मंडल इकाइयों को फ़िर क्यों खेमें व गुटों में बाटा गया…?
दिल्ली दरबार को क्षेत्रों के रूठने का डर, ज़मीनी कार्यकर्ताओं के रोष की चिंता क्यो नही….?
पूर्व में जिलों में ही रायशुमारी के बाद हाथों हाथ अध्यक्ष के नाम की हो जाती थी घोषणा

रायशुमारी यानि जो सबकी राय, उसके अनुरूप फैसला। सब कुछ पाक-साफ़। जिसके पक्ष में ज़्यादा मत, उसका ही चयन। न किसी को दिक़्क़त, न कोई गुटबंदी। सब कुछ आंखों के सामने। दूध का दूध, पानी का पानी की तरह। लेक़िन ये क्या कि रायशुमारी को ही सिरे से नकार दिया जाए। न सिर्फ नकारा जाए, बल्कि पुरी तरह बदल भी दिया जाए। जो रायशुमारी में अव्वल रहा, उस नेता का दूर दूर तक अता पता नही और जिसका रायशुमारी में कोई नामलेवा नही, उसके सिर पर ताज। ये कैसा फैसला? फ़िर भी कोई उफ़्फ़ तक नही। न कोई आक्रोश-विरोध। क्या ये है आंतरिक लोकतंत्र का आशय? ‘हमारे दल में आंतरिक लोकतंत्र सबसे ज्यादा’ के दावे की क्या ये ही परिभाषा हैं?अगर नहीं तो फ़िर एक बार फ़िर से पार्टी विथ ए डिफरेन्स कहे जाने वाले दल भाजपा में रायशुमारी को ताक में क्यों रख दिया गया। ऐसा आख़िर कब तक होगा? क्या अब केंद्रीय नेतृत्व जिलों का फैसला भी करेगा? ऐसा तो भाजपा के स्थापना काल 1980 के बाद से पहली बार सुना कि जिलाध्यक्ष के पैनल दिल्ली जाएंगे और वहां से तय होगा कि कौन होगा अध्यक्ष। तो फ़िर रायशुमारी क्या महज़ एक नाटक थी…..?

ये तमाम सवाल इन दिनों दिन दिनभर भाजपा गलियारों में तेज़ी से गूंज रहें हैं समूचा मध्यप्रदेश इन दिनों भाजपा के नए जिलाध्यक्ष की तैनाती का शोर सुन रहा हैं। सबसे बड़ी पार्टी का दावा करने वाले दल में तो एक तरह से जीवन मरण का दौर चल रहा हैं कि कौन बनेगा जिलाध्यक्ष बड़े नेताओं की ही नहीं, औसत कार्यकर्ताओं की भी नींद उड़ी हुई हैं। लेक़िन भाजपा का प्रदेश नेतृत्व ये तय नही कर पा रहा है कि जिलाध्यक्ष की सूची कब जारी करे करे भी कि होल्ड कर दे या उतने ज़िलों में अध्यक्ष की घोषणा कर दे, जितने में पार्टी संविधान के हिसाब से प्रदेश अध्यक्ष का फैसला हो जाये। आख़िर ये नोबत क्यो बन रही हैं? जबकि पार्टी के संगठन पर्व में हर ज़िले में इस मूददे पर गम्भीरता से रायशुमारी हो चुकी हैं कि किस ज़िले में किस नेता को अध्यक्ष के रूप में सर्वाधिक पसंद किया गया हैं। इस प्रक्रिया को पूर्ण हुए भी एक पखवाड़े से ज्यादा हो गए। 31 दिसम्बर की आख़री तारीख़ के बिदा हुए सप्ताहभर हो गया लेक़िन ज़िले के मुखियाओं के दूर तक अते पते नही।
केंद्रीय नेतृत्व इतना फ़ुरसत में कि जिले के फैसले भी करें

जब रायशुमारी हो चुकी तो सत्ता और संगठन के नेता सूची क्यो रोककर बेठे हैं भोपाल में आये दिन बैठकर क्या औऱ क्यो चिंतन मंथन किया जा रहा हैं? रोज बैठक हो रही और रोज फैसला क्यों टल रहा हैं? पहली बार ये हालात क्यों बना दिये गए कि एक ज़िले का मामला केंद्रीय नेतृत्व तय करें। इंदौर, धार, उज्जैन, भोपाल का फैसला दिल्ली से क्यों? ऐसा तो भाजपा में आज तक नही हुआ। 1980 में पार्टी के गठन के बाद से ऐसा पहली बार सुनने में आया कि जिलाध्यक्ष के पैनल दिल्ली जायंगे और अंतिम मुहर दिल्ली से लगेंगी। तो क्या भाजपा का केंद्रीय संगठन इतना फुरसत में है कि वह ज़िलों के चुनाव भी करवाए या फ़िर प्रदेश नेतृव इतना नकारा हैं कि वह अपने हिस्से का काम नही कर पा रहा हैं? प्रादेशिक संगठन होने का आखिर फ़िर क्या औचित्य कि दिल्ली दरबार को हटा-दमोह, सागर छिंदवाड़ा से धामनोद धरमपुरी का फैसला करना पड़े? क्या भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व अब ज़िलों की कमान भी संभालेगा? तो फ़िर ‘ कैडर बेस पार्टी’ और ‘ आंतरिक लोकतंत्र’ की दम्भोक्ति क्यो?
कहां हैं रायशुमारी के लिफ़ाफ़े रिजल्ट का ख़ुलासा क्यो नही

अगर फैसला बड़े नेताओं और दिल्ली दरबार को ही करना था तो रायशुमारी के नाम विधायकों को खेमे में क्यो बाटा गया? मंडल इकाइयों के गठन होते ही गुटों में क्यो बाटा गया। अब विधायक तो एक्सपोज़ हो गए कि उनकी पसंद का नेता कौन हैं। मंडल अध्यक्ष भी उज़ागर हो गए कि उनकी निष्ठाएं कहा हैं। सबने रायशुमारी में अपने अपने हिसाब से लामबंदी की और जिलाध्यक्ष के नाम आगे किये। परिवार माने जाने वाले दल में अलग अलग गुट खड़े करने के बाद अध्यक्ष की लड़ाई बड़े नेताओं में हाथ मे ले ली तो फ़िर रायशुमारी के वे लिफ़ाफे कहा गए जो बड़े प्रचार के बाद ज़िलों से भोपाल पहुँचे थे बड़ी बेसब्री से उन लिफाफों के खुलने का सबको इंतजार था। उन्हें खोला भी गया कि सीधे रद्दी की टोकरी में फेंक दिया अगर डस्टबिन के हवाले नही किया तो रिज़ल्ट बताया जाए न कि किस जिले में किसे पसंद किया गया और कितने लोगों ने। अगर ऐसा नही हो रहा तो फिर संगठन पर्व के नाम पर पार्टी नेताओं, विधायकों, मंडल इकाइयों का एक तरह से मज़ाक बनाया गया हैं।

केंद्रीय नेतृत्व क्या क्षत्रपों की नाराजगी से डर रहा?*

क्या दिल्ली दरबार प्रदेश के क्षत्रपों के कोप से डर रहा है जो अध्यक्ष के पैनल राजधानी बुलाये गए हैं? या ये बड़े नेताओं का कोई खेल हैं अपने समर्थकों को व्हाया दिल्ली से ज़िले में लेकर आने का ताकि फ़िर कोई विरोध की स्थिति में न हो अगर भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व प्रदेश के क्षत्रपों की नाराज़गी की चिंता कर रहा है तो उसे उन लाखों लाख कार्यकर्ताओ की फ़िक्र नही जो जिलों में हुई रायशुमारी को ही असली न्याय व आंतरिक लोकतंत्र मानता आ रहा हैं? औसत कार्यकर्ताओ के रोष की चिंता दिल्ली दरबार को नही है क्या? अगर है तो फ़िर केंद्रीय नेतृत्व, प्रदेश नेतृत्व को फटकार क्यों नही लगा रहा कि संगठन पर्व का ये क्या मजाक बना दिया….?

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